'फलों का टोकरा '

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जितेन की पत्नी देविका गर्भवती थी, वह समय आने ही वाला था की नन्ही जिन्दगी संसार में अवतरित होती। इस समय देविका को सबके सहयोग की जरुरत थी चाहे सासू माँ थी, या ननद रांची यानि की जितेन जी की बहन जो की शादीशुदा थी। गर्भवती होने के बावजूद देविका सारे कर्तव्य उतनी ही तत्परता से निभाती थी, इसके बाद भी न तो वह सास की प्रिय बहू बन सकी,  न नन्द की अच्छी भाभी और न ही इस योग्य उसे जितेन जी समझते थे की इस अवस्था में तो कम से कम उसका स्वाभिमान बचाते जो हर वक्त उनकी माँ और बहन रांची हनन करते रहते थे।
फिर भी देविका खुश रहती थी अपने आने वाले शिशु के स्वागत के लिए। उसेअचानक सुबह चार बजे प्रसव पीड़ा होने लगी किन्तु भाग्य कहिये या लापरवाही जितेन जी ने ना तो उसे डॉक्टर के पास ले जाना सही समझा न ही जननी सुरक्षा गाड़ी को बुलाया, और नन्हा सा शिशु दुनिया में अचानक आगया और बिना रोये ही एक पल में उसी  ईश्वर के पास वापस भी चला गया। देविका का सब कुछ झटके ही ख़त्म हो गया, प्रेक्टिकल जितेन जी दूसरे दिन से बिजनेस में लग गये क्योकि  उनके अनुसार तो "जाने वाला तो चला गया "।
रांची के अनुसार "वो तो ऐसा ही होना था देविका भाभी के साथ, उनको तो उनके कर्मों का फल मिलना था सो मिल गया, मेरे भाई पर हक जमाने की कोशिश करती थी न। अवाक् सी रह गयी देविका और सोचने लगी अगर मेरे एक बच्चे के जाने से मुझे मेरे कर्मों का एक फल मिला है तो क्या रांची दीदी को क्या वो फलों का टोकरा मिला था जब उनके एक के बाद एक छह बच्चे पैदा हो कर संसार से चले गये थे !!!! 
                                                                                                                   गीतिका  'वेदिका'
                                                             ७ मार्च २०१३ १ १०:०० अपरान्ह   

Comments






  1. बहुत मार्मिक लघुकथा है फलों का टोकरा
    संवेदनहीनता हमारे घरों में पसरने लगी है...

    आदरणीया गीतिका 'वेदिका' जी
    आपके ब्लॉग पर पहुंच कर बहुत अच्छा लगा ।
    आपकी लेखनी से सार्थक लेखन होता रहे , यही कामना है ।


    हार्दिक शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार


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    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय राजेंद्र जी!
      मेरी लेखनी को आशीर्वचन से ओतप्रोत करने हेतु हार्दिक आभार
      ....स्नेह बनाये रखिये ...ताकि सदैव सार्थक लिखती रहूँ ..

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